हर विलक्षण परिवर्तनकामी बुद्धिजीवी की भांति मार्क्स को भी अपने जीवनकाल में आलोचनाओं और विरोधों का सामना करना पड़ा था. अपने उग्र विचारों और क्रांतिकारी लेखन के लिए उसे फ्रांस, प्रूशिया, बेल्जियम, कोलोन आदि से खदेड़ा जाता रहा. मगर अपने विचारों के प्रति पूरी तरह से आस्थावान और संघर्षशील मार्क्स हर बार श्रमिक क्रांति के पक्ष में आवाज उठाता रहा. इसका उसको नुकसान भी उठाना पड़ा. उसके बेटे–बेटियां समय पर बीमारियों का उपचार न होने के कारण चल बसे. स्वयं मार्क्स फेफड़े की कमजोरी का शिकार था, जिसके कारण उसको अपनी युवावस्था में सेना की नौकरी से हाथ धोना पड़ा था. मगर अपने और अपने परिवार के उपचार के लिए न तो उसके पास पर्याप्त धन था, न ही समय. रात–दिन उसका बस एक ही काम था. लेखन और केवल लेखन. सार्थक और प्रतिबद्ध लेखन. अपने जीवनकाल में उसने विपुल मात्रा में साहित्य–रचना की. प्रतिबंधों, आलोचनाओं और विरोध से घबराये बिना उसने वही लिखा जो उसको युक्तिसंगत लगा. अपने प्रतिबद्ध लेखन के कारण ही उसके विचारों की प्रासंगिकता मृत्यु के 127 वर्ष बाद भी अक्षुण्ण है. यही नहीं बुर्जुआ पक्ष के बुद्धिजीवियों और उसके प्रेस ने मार्क्स और उसके विचारों की जितनी आलोचना की, वह लोगों के दिल में उतनी ही गहरी जगह बनाता गया.
मार्क्सवाद के आलोचक इस विचार से अपनी असहमति अनेक स्तरों पर दर्शाते हैं. अधिकांश का मानना है कि पूंजीवाद धन के अर्जन एवं उसके वितरण की अधिक उपयोगी एवं न्यायिक व्यवस्था है. उनके अनुसार पूंजीवाद व्यक्तिमात्र के अधिकारों एवं हितों की ओर अधिक ध्यान देता है. श्रमिक को यह भरोसा होने पर कि उसके श्रम का पूरा लाभ मिलेगा, वह अपनी संपूर्ण क्षमता से कार्य करता है. स्पर्धात्मक वातावरण में प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों से आगे निकलने का अवसर प्राप्त होता है. यह विश्वास होने पर कि श्रम–कौशल का पूरा लाभ उसी को मिलेगा, श्रमिक अधिक परिश्रम और तन्मयता के साथ काम करता है, जिससे अधिकतम उत्पादकता संभव है. पूंजीवादी व्यवस्था में अर्जित संपत्ति पर श्रमिक का अपना अधिकार होता है—इस कारण पूंजीवाद के समर्थक उसको साम्यवाद और समाजवाद से अधिक कारगर व्यवस्था मानते हैं. पूंजीवादी तंत्र में उद्योगपति को भी यह विश्वास होता है कि नए शोध और तकनीक का लाभ सीधे उसको मिलने वाला है. इसलिए वह नए शोध और अन्वेषणों पर भी पूरा–पूरा ध्यान देता है. उद्योगपति की समृद्धि का एक हिस्सा वेतन एवं अन्य परिलब्धियों के माध्यम से समाज के निचले हिस्सों में भी अंतरित होता रहता है, जिससे समाज का आर्थिक स्तर लगातार ऊपर उठता जाता है. उनके अनुसार साम्यवाद और समाजवाद में श्रमिक को कड़े अनुशासन में कार्य करना पड़ता है. बावजूद इसके उसे उत्पादन–लाभों से वंचित रखा जाता. इसलिए वहां पर श्रमिक मुक्त मन से उत्पादन–व्यवस्था में हिस्सा नहीं ले पाता. जिससे वहां उत्पादकता का स्तर लगातार गिरता चला जाता है. कुछ विद्वान मानते हैं कि मार्क्सवाद व्यक्ति के नकारात्मक सोच को दर्शाता है. यह समन्वय और सहयोग द्वारा मिल–जुलकर विकासमार्ग पर अग्रसर होने के बजाय हिंसक क्रांति पर जोर देता है. परिणामस्वरूप समाज में अस्थिरता और अराजकता बढ़ती है और समाज की ऊर्जा गैररचनात्मक कार्यों में खपने लगती है.
धर्म के प्रति अपने लगभग कट्टरपंथी रवैये के कारण भी मार्क्सवाद की आलोचना की जाती है. विद्वानों के अनुसार कल्याण सरकार का पहला कर्तव्य है कि वह व्यक्तिमात्र के विश्वास तथा अधिकारों की रक्षा करे. धर्म व्यक्ति की निजी आस्था और विश्वास का प्रश्न है, जिसको शेष समाज पर नहीं थोपा जाना चाहिए, न ही व्यक्तिमात्र की आस्था और विश्वास की अवमानना करना नीतिसंगत है. इतिहास के समाजार्थिक अध्ययन–विश्लेषण के बाद मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचा था कि धर्म का उपयोग वर्गीय ताकतों द्वारा अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए जानबूझकर किया जाता है. वह व्यक्ति को अपने अधिकारों और सामथ्र्य से उदासीन बनाता है. मृत्यु के बाद सुख की कामना व्यक्ति को भाग्यवादी तथा पलायनोन्मुखी बनाती है. अपनी दुर्दशा के लिए वह अपने भाग्य को दोषी ठहराने लगता है. परिणामस्वरूप उन शक्तियों की ओर से उसका ध्यान पूरी तरह हट जाता है, जो वास्तव में उसकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं. कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद निजता को उस समय तक कोई कोई महत्त्व नहीं देता, जबतक कि वह मनुष्य को अपने कर्तव्यों से उदासीन बनाती है. उसको शेष समाज से इतर, सिर्फ अपने बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती है.
कुछ विद्वानों का आरोप है कि समाजवाद और साम्यवाद दोनों में व्यक्ति को समाज के पक्ष में अपने हितों का बलिदान करना पड़ता है. चूंकि किन्हीं भी दो व्यक्तियों के हित एक समान नहीं हो सकते, इसलिए साम्यवाद जैसी व्यवस्था हालांकि हितों के सामान्यीकरण का नारा लगाती हैं, मगर प्रकट में वह जनसाधारण के हितों से खिलवाड़ ही करती है. वृहद समाज के हितों की रक्षा का नारा लगाने वाला साम्यवाद असल में किसी भी व्यक्ति के हितों की पूरी तरह रक्षा नहीं कर पाता. वहां व्यक्ति को समूह के आगे नगण्य और उपेक्षित मान लिया जाता है. इसी आधार पूंजीवाद के समर्थक कुछ विद्वान मार्क्सवाद को नागरिक अधिकारों का हनन करने वाली विचारधारा स्वीकार करते हैं. कुछ लेखकों के अनुसार मार्क्स का अर्थचिंतन हीगेल की विचारधारा का विस्तार है. उनके अनुसार मार्क्स अपने विचारों को लेकर सुश्निश्चित नहीं था. उनको लेकर उसके मन में सदैव असंतोष बना रहा. उसको लगने लगा था कि आर्थिक प्रगति की पूर्वस्थापित योजनाएं अतार्किक एवं अवास्तविक हैं. वैचारिक आस्था के अभाव में वह अपनी महत्त्वाकांक्षी पुस्तक ‘पूंजी’ के बाकी दो खंडों को अपने जीवनकाल में पूरा करने में असमर्थ रहा था.
1930 की भयानक मंदी के चलते अनेक देशों ने मार्क्सवाद के प्रति उत्सुकता प्रकट की थी. जनाक्रोश से बचने के लिए मंदी से प्रभावित देशों की सरकारों ने सुरक्षात्मक कदम उठाने आरंभ कर दिए थे. तात्कालिक कार्रवाही से दुनिया पर छाये मंदी के बादल छंटने लगे, नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद अनेक छोटे देशों का सरकारी धर्म बनते–बनते रह गया. उधर साम्यवादी देशों की हालत भी बहुत अच्छी न थी. उनीसवीं शताब्दी में ही साम्यवाद को अपना चुके देशों में राजनीतिक उथल–पुथल और आर्थिक मंदी के कारण हालात बिगड़ने लगे थे. इससे वहां की जनता का मार्क्सवाद से मोह–भंग होने लगा. यहां ‘मोह–भंग’ शब्द शायद अनुपयुक्त प्रयोग है. कुछ विद्वान मार्क्स की धर्म–संबंधी अवधारणा में भी विरोधाभास खोजते हैं. उनके अनुसार मार्क्स परंपरागत धर्म का प्रतिकार करता है, मगर अपनी विचारधारा मार्क्सवाद को धार्मिक आस्था की भांति आरोपित करता है. यह विरोधाभासी स्थिति है, जो मार्क्स के विचारों की वैज्ञानिकता पर सवाल खड़े करती है.
मार्क्स के आलोचकों में से एक कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर लेविस एस. फ्यूअर(1912—2002) का मानना है कि स्वयं मार्क्सवाद में धर्म की अनेक विशेषताएं सुरक्षित हैं. फ्यूअर के अनुसार मार्क्सवाद के समर्थक उसको बड़े ही सुनियोजित तरीके से आस्था और विश्वास के रूप में जनमानस में रोपने का प्रयास करते हैं, न कि ऐसे सत्य के रूप में जिसको प्रयोगों के आधार पर जांचा–परखा गया हो. फ्यूअर के अनुसार मार्क्सवाद और ईसाइयत में सिर्फ इतना अंतर है कि मार्क्सवाद इसी जीवन को सुखमय बनाने का दावा करता है, जबकि ईसाई धर्म मृत्यु के बाद सुख–प्राप्ति का विश्वास दिलाता है. तर्क की कसौटी पर दोनों ही कच्चे हैं. वस्तुतः मार्क्स ने अपने जीवनकाल में ही बुद्धिजीवियों का आवाह्न किया था कि वे मार्क्सवाद के प्रचार में अपना अधिकाधिक योगदान दें. रूस, चीन, कोरिया आदि देशों में मार्क्सवाद से प्रेरित होकर अनेक विद्वान लेखक, साहित्यकार उसकी ओर आकर्षित भी हुए थे. क्रांति के बीच और उसके बाद जिस प्रकार का प्रचार साहित्य बांटा, उसने मार्क्सवाद को एक धार्मिक सत्ता की तरह ही स्थापित करने का प्रयास किया था. अंतर सिर्फ इतना है कि ईसाइयत परमात्मा और पैगंबरवाद में भरोसा करती है. डार्विन के विकासवाद से प्रेरित मार्क्स इस प्रकार की किसी अलौकिक शक्ति की उपस्थिति को सरासर नकारता है. इसके बावजूद फ्यूअर ने मार्क्सवाद की उपयोगिता को स्वीकारा था.
कार्ल पोपर ने भी मार्क्स के विचारों पर अवैज्ञानिक होने का आरोप लगाया है. उसके अनुसार मार्क्स के विचार प्रभावी और दिल को भले ही लगें, मगर वे तार्किकता से परे हैं. पोपर ने मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की भी आलोचना की है. उसके अनुसार मार्क्स का विकासवादी चिंतन कुछ पूर्वनिर्धारित मान्यताओं से प्रभावित है. पूंजीवाद की आलोचना करते समय मार्क्स अत्यधिक आक्रामक हो जाता है, जिससे निष्पक्ष विवेचना की संभावना घट जाती है. जैसा कि पहले भी संकेत किया गया है, मार्क्स और ऐंगल्स का विचार था कि मार्क्सवाद की सफलता यूरोप के विकसित देशों में ही संभव है. जिस समय व्लादिमिर लेनिन ने सोवियत रूस की राजनीति में कदम रखा, वह आर्थिकरूप से बेहद पिछड़ा देश था. लेनिन के राजनीतिक सहयोगी ट्रोटस्की ने ‘स्थायी क्रांति’ की अभिकल्पना प्रस्तुत की थी, जिसमें उसने कहा था कि रूस जैसी कृषि–आधारित व्यवस्था और विस्तृत भू–भाग वाले देश में भी मार्क्सवादी क्रांति संभव है. बाद में सोवियत संघ की स्थापना से उसने अपने विचारों की प्रामाणिकता सिद्ध भी कर दी थी.
कुछ विद्वानों ने मार्क्स के ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के विचार को भी कठघरे में खड़े करते हुए आरोप लगाया था कि वह तर्क से सिद्ध करने के बजाय, केवल स्थापनाएं देता है, जो विमर्श के दौरान कहीं टिक ही नहीं पातीं. निष्कर्ष तक पहंुचने की हड़बड़ी उसकी पूरी मेहनत पर पानी फेर देती है. केवल दक्षिणपंथी विचारक ही मार्क्स से असंतुष्ट हों, ऐसा नहीं है. कतिपय वामपंथियों ने भी उसके विचारों के प्रति अपनी असहमति दर्ज की है. इनमें से एक उसका समकालीन हेनरी जाॅर्ज था, जिसका मानना था कि मार्क्स के विचारों को शायद ही कभी परखा गया है. हेनरी जाॅर्ज ने मार्क्स के विचारों पर कृत्रिमता का आरोप लगाया था. मार्क्स के विचारों से उसका समकालीन रूसी अराजकतावादी मिखाइन बेकुनिन भी असहमत था. बेकुनिन और मार्क्स में व्यक्तिगत स्तर पर तो मतभेद भी ही. ये मतभेद ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के दौरान खुलकर सामने आए थे. मार्क्स का मानना था कि बेकुनिन इंटरनेशनल का उपयोग निजी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए करना चाहता है, जबकि बेकुनिन ने मार्क्स पर फ्रांसिसी राजनीति का यहूदीकरण करने के आरोप लगाए थे. दोनों में परस्पर सैद्धांतिक मतभेद भी थे. बेकुनिन की मान्यता थी कि भविष्य के संगठनों का निर्माण पूर्णत नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिए. उसने परिकल्पना की थी कि श्रमिक पहले स्वैच्छिक मजदूर संघों में संगठित होंगे. उन मजदूर संघों के स्वतंत्र श्रमिक–बस्तियां(कम्यून) होंगी. तदनंतर वे क्षेत्र, प्रांत, राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक संगठित शक्ति का रूप ले लेंगे और इस तरह संपूर्ण समाजवाद का आगमन होगा. मार्क्स के कथन ‘एक अच्छे दिन काम करने के एवज में आकर्षक, न्यायोचित वृत्तिका’ के समानांतर उसका कहना था—‘वृत्तिका प्रणाली का उन्मूलन.’ स्पष्ट है कि श्रमिकसंघवादी बेकुनिन श्रमिक संघों को राजनीतिक–आर्थिक शक्तियों से लैस करना चाहता था. उसका मानना था कि—जब दुनिया–भर के उद्योगों का संचालन श्रमिकों द्वारा अपने भले के लिए किया जाएगा, उस समय भीषण बेरोजगारी, युद्ध, सामाजिक अंतद्र्वंद्व यहां तक कि बड़े अपराध और गंभीर सामाजिक समस्याओं के बने रहने का कोई आधार ही नहीं रहेगा.
मार्क्स के चिंतन की व्यापकता से इनकार नहीं किया जा सकता, मगर यह भी सत्य है कि मार्क्स के बाद से करीब सवा सौ वर्ष के अंतराल में समाज में व्यापक परिवर्तन आया है. इनमें से एक बदलाव प्रेस की स्वतंत्रता और उसकी शक्ति से भी जुड़ा है. हाल के दशकों में मीडिया जितना ताकतवर होकर उभरा है, इसके बारे में मार्क्स और ऐंगल्स ने शायद कल्पना भी न की थी. मीडिया और शिक्षा की मिली–जुली ताकत ने उपभोक्ता को भी अपने हितों के प्रति जागरूक किया है. उत्पाद से जुड़ी सूचनाएं अब केवल उत्पादक की संपत्ति नहीं है. बल्कि व्यापक लोकहित में उसको उन्हें सार्वजनिक भी करना पड़ सकता है. बाजारोन्मुखी व्यवस्था में संबंधों में परिवर्तन अवश्य हुआ है. अपने दैनिक जीवन में उपभोक्ता और उत्पादकों का सम्मिलन न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित करता है, जिसके आधार पर हमारे जीवन का स्वरूप तय होता है. हालांकि अब भी उपभोक्ता और उत्पादक के संबंधों में उत्पादक का हाथ ऊपर होता है. वही तय करता है कि उपभोक्ता के साथ मेल–मुलाकात के समय कहां तक समझौता किया जाए. बावजूद इसके यह भी सच है कि
स्पष्टरूप से मार्क्सवाद की अभिकल्पना यह सोचकर की गई थी कि मानवीय व्यवस्था के रूप में यह एक दिन पूंजीवाद को अपदस्थ कर उसका स्थान ले लेगा. दरअसल यह ‘स्थान ले लेना’ ही मार्क्सवाद की दुर्बलता है. इससे कई बार यह संकेत भी मिलता है मार्क्सवाद केवल सत्ताओं के विकल्प की बात करता है. वास्तविक परिवर्तन उसका लक्ष्य है ही नहीं. मार्क्स और ऐंगल्स निःसंदेह विलक्षण प्रतिभाशाली थे, जिन्होंने सर्वहारा वर्ग का आवाह्न किया था कि अपने हितों की पहचान करे. संगठित होकर विरोध की रूपरेखा तैयार करे. पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में सफलता के लिए प्रतिबद्ध साहित्य के अध्ययन की ओर प्रवृत्त हो और पूरी तैयारी के साथ पूंजीवाद की जड़ों पर प्रहार करें. मगर कब तक? लेखकद्वय संभवतः यह सोच भी नहीं पाए थे कि मार्क्सवादी विचारधारा से लैस मजदूर, पूंजीवाद को उखाड़ फैंकने के बजाय उसके समर्थन में भी जा सकता है. ऐसा इतिहास में होता भी रहा है. मजदूर संगठनों की असफलता के पीछे इस तरह के ढेरों उदाहरण आसानी से खोजे जा सकते हैं.
अंत में एक प्रश्न. हालांकि यह सिर्फ आकलन करने की कोशिश है. प्रश्न यह है कि मार्क्स और ऐंगल्स यदि अपने विचारों के साथ दुबारा जन्म ले लें तो उनकी और उनके विचारों की प्रासंगिकता होगी? यानी क्या समाज को आज भी मार्क्स और ऐंगल्स की जरूरत है. यह बात गांधी अथवा किसी और महापुरुष को लेकर भी उठाया जाता सकता है. इसमें तो कोई दो राय नहीं कि मार्क्स और ऐंगल्स का दर्शन आज की स्थितियों में बहुत प्रामाणिक लगता है. तो भी मार्क्स और ऐंगल्स के दर्शन की वापसी की स्थिति में उसके हम आंशिक रूप में ही उसके साथ होंगे. शायद इसलिए कि लगभग डेढ़–दो शताब्दी के अंतराल पूंजीवाद ने हमारे सोच और व्यवहार दोनों को ही आमूल बदला है. यह बदलाव इतना व्यापक और सूक्ष्म है कि पूंजीवाद के धुर विरोधी विचारक भी अपने व्यवहार से उसका समर्थन करते हुए देखे जा सकते हैं.
मेरे विचार में ‘कम्युनिस्ट’ मेनीफेस्टो जैसे विचारों की आज कोई प्रासंगिकता नहीं है. हां मार्क्स की पूंजी का बहुत–सा हिस्सा आज भी प्रासंगिक है; और बना रहेगा. कहा जा सकता है कि हमें युवा मार्क्स नहीं, अनुभवी मार्क्स की आवश्यकता है. हमें आवश्यकता है मार्क्स और ऐंगल्स की विलक्षण मेधाओं की. पुनर्जन्म अप्रामाण्य है, फिर भी यदि मार्क्स घूमते–फिरते हमारे युग में लौट आएं तो हमारा आग्रह यह भी हो सकता है कि वह पूंजी का आधुनिक संदर्भयुक्त ग्रंथ दुबारा से लिखे. हम यह भी चाहेंगे कि उसमें पूंजीवाद की समालोचना हो, सिर्फ आलोचना नहीं. मार्क्स से यदि मुलाकात हो तो हम चाहेंगे कि वह धर्म की आलोचना को सस्ते में ही न निपटा दे. बल्कि उसपर तथ्यों के साथ विचार करे. यह भी विचारे कि क्या धार्मिक प्रभावों का कोई अनुकूल लाभ उठाया जा सकता है. हालांकि यह एक मुश्किल पाठ होगा. तो भी मार्क्सवाद की प्रासंगिकता को अगली शताब्दी तक ले जाने के लिए यह छोटा–सा मूल्य होगा. यदि यह काम ईमानदारी से किया जाए तो उसके फल भी दूरगामी महत्त्व के होंगे. और अंत में मार्क्स के बारे में महान क्यूबाई क्रांतिकारी चे’ ग्वेरा के विचार जानना उसके विचारों की समकालीनता को दर्शाने के लिए पर्याप्त होगा
और अंत में सिर्फ इतना कि हम मार्क्स के समाज को बदलने के नारे से असहमत हो सकते हैं, उसके क्रांतिकारी विचारों से अपनी असहमति दर्शा सकते हैं, उन्हें हिंसक बताकर उनसे नफरत कर सकते हैं. यही नहीं उसके पूंजीवाद विरोध को हम एकतरफा, वैचारिक दुराग्रह का प्रतीक भी मान सकते हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि पचास साल में पूंजीवाद के खात्मे की मार्क्स की भविष्यवाणी झूठ सिद्ध हो चुकी है, इसलिए उसके पूंजीवाद–विरोध में कोई दम नहीं है. लेकिन उसके दृष्टिकोण से, सर्वहारा वर्ग के कल्याण की उसकी सदेच्छा तथा उसके प्रति समर्पण हेतु किए गए सतत संघर्ष के लिए, उन कष्टों के लिए जो अपने विचारों पर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ते हुए मार्क्स और उसके परिवार को उठाने पड़े थे, हमें उसका सम्मान करना ही पड़ेगा. इसलिए यदि दुनिया–भर में करोड़ों मजदूर, उसके नाम का एक साथ नारा लगाते हैं, जी–जान से उसको चाहते हैं, उसको अपना सच्चा हितैषी, गुरु और पथप्रदर्शक मानते हैं, तो हमें यह मानना ही पड़ेगा कि वह सच्चा मनुष्यता का सच्चा हितैषी, महान विचारक, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और अपने समय का महान चिंतक था. मानवीय सभ्यता के उन महानतम चिंतकों में से एक जो शताब्दियों के अंतराल में कभी–कभी ही जन्मते हैं. इसलिए मार्क्स की मेधा, उसके संघर्ष, सोच, दूरदृष्टि, मानवप्रेम, उसकी जीवनसंगिनी जेनी और मित्र एंगल्स को हमारा नमन! शत–सहस्र नमन!
मार्क्सवाद के आलोचक इस विचार से अपनी असहमति अनेक स्तरों पर दर्शाते हैं. अधिकांश का मानना है कि पूंजीवाद धन के अर्जन एवं उसके वितरण की अधिक उपयोगी एवं न्यायिक व्यवस्था है. उनके अनुसार पूंजीवाद व्यक्तिमात्र के अधिकारों एवं हितों की ओर अधिक ध्यान देता है. श्रमिक को यह भरोसा होने पर कि उसके श्रम का पूरा लाभ मिलेगा, वह अपनी संपूर्ण क्षमता से कार्य करता है. स्पर्धात्मक वातावरण में प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों से आगे निकलने का अवसर प्राप्त होता है. यह विश्वास होने पर कि श्रम–कौशल का पूरा लाभ उसी को मिलेगा, श्रमिक अधिक परिश्रम और तन्मयता के साथ काम करता है, जिससे अधिकतम उत्पादकता संभव है. पूंजीवादी व्यवस्था में अर्जित संपत्ति पर श्रमिक का अपना अधिकार होता है—इस कारण पूंजीवाद के समर्थक उसको साम्यवाद और समाजवाद से अधिक कारगर व्यवस्था मानते हैं. पूंजीवादी तंत्र में उद्योगपति को भी यह विश्वास होता है कि नए शोध और तकनीक का लाभ सीधे उसको मिलने वाला है. इसलिए वह नए शोध और अन्वेषणों पर भी पूरा–पूरा ध्यान देता है. उद्योगपति की समृद्धि का एक हिस्सा वेतन एवं अन्य परिलब्धियों के माध्यम से समाज के निचले हिस्सों में भी अंतरित होता रहता है, जिससे समाज का आर्थिक स्तर लगातार ऊपर उठता जाता है. उनके अनुसार साम्यवाद और समाजवाद में श्रमिक को कड़े अनुशासन में कार्य करना पड़ता है. बावजूद इसके उसे उत्पादन–लाभों से वंचित रखा जाता. इसलिए वहां पर श्रमिक मुक्त मन से उत्पादन–व्यवस्था में हिस्सा नहीं ले पाता. जिससे वहां उत्पादकता का स्तर लगातार गिरता चला जाता है. कुछ विद्वान मानते हैं कि मार्क्सवाद व्यक्ति के नकारात्मक सोच को दर्शाता है. यह समन्वय और सहयोग द्वारा मिल–जुलकर विकासमार्ग पर अग्रसर होने के बजाय हिंसक क्रांति पर जोर देता है. परिणामस्वरूप समाज में अस्थिरता और अराजकता बढ़ती है और समाज की ऊर्जा गैररचनात्मक कार्यों में खपने लगती है.
धर्म के प्रति अपने लगभग कट्टरपंथी रवैये के कारण भी मार्क्सवाद की आलोचना की जाती है. विद्वानों के अनुसार कल्याण सरकार का पहला कर्तव्य है कि वह व्यक्तिमात्र के विश्वास तथा अधिकारों की रक्षा करे. धर्म व्यक्ति की निजी आस्था और विश्वास का प्रश्न है, जिसको शेष समाज पर नहीं थोपा जाना चाहिए, न ही व्यक्तिमात्र की आस्था और विश्वास की अवमानना करना नीतिसंगत है. इतिहास के समाजार्थिक अध्ययन–विश्लेषण के बाद मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचा था कि धर्म का उपयोग वर्गीय ताकतों द्वारा अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए जानबूझकर किया जाता है. वह व्यक्ति को अपने अधिकारों और सामथ्र्य से उदासीन बनाता है. मृत्यु के बाद सुख की कामना व्यक्ति को भाग्यवादी तथा पलायनोन्मुखी बनाती है. अपनी दुर्दशा के लिए वह अपने भाग्य को दोषी ठहराने लगता है. परिणामस्वरूप उन शक्तियों की ओर से उसका ध्यान पूरी तरह हट जाता है, जो वास्तव में उसकी दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं. कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद निजता को उस समय तक कोई कोई महत्त्व नहीं देता, जबतक कि वह मनुष्य को अपने कर्तव्यों से उदासीन बनाती है. उसको शेष समाज से इतर, सिर्फ अपने बारे में सोचने के लिए प्रेरित करती है.
कुछ विद्वानों का आरोप है कि समाजवाद और साम्यवाद दोनों में व्यक्ति को समाज के पक्ष में अपने हितों का बलिदान करना पड़ता है. चूंकि किन्हीं भी दो व्यक्तियों के हित एक समान नहीं हो सकते, इसलिए साम्यवाद जैसी व्यवस्था हालांकि हितों के सामान्यीकरण का नारा लगाती हैं, मगर प्रकट में वह जनसाधारण के हितों से खिलवाड़ ही करती है. वृहद समाज के हितों की रक्षा का नारा लगाने वाला साम्यवाद असल में किसी भी व्यक्ति के हितों की पूरी तरह रक्षा नहीं कर पाता. वहां व्यक्ति को समूह के आगे नगण्य और उपेक्षित मान लिया जाता है. इसी आधार पूंजीवाद के समर्थक कुछ विद्वान मार्क्सवाद को नागरिक अधिकारों का हनन करने वाली विचारधारा स्वीकार करते हैं. कुछ लेखकों के अनुसार मार्क्स का अर्थचिंतन हीगेल की विचारधारा का विस्तार है. उनके अनुसार मार्क्स अपने विचारों को लेकर सुश्निश्चित नहीं था. उनको लेकर उसके मन में सदैव असंतोष बना रहा. उसको लगने लगा था कि आर्थिक प्रगति की पूर्वस्थापित योजनाएं अतार्किक एवं अवास्तविक हैं. वैचारिक आस्था के अभाव में वह अपनी महत्त्वाकांक्षी पुस्तक ‘पूंजी’ के बाकी दो खंडों को अपने जीवनकाल में पूरा करने में असमर्थ रहा था.
1930 की भयानक मंदी के चलते अनेक देशों ने मार्क्सवाद के प्रति उत्सुकता प्रकट की थी. जनाक्रोश से बचने के लिए मंदी से प्रभावित देशों की सरकारों ने सुरक्षात्मक कदम उठाने आरंभ कर दिए थे. तात्कालिक कार्रवाही से दुनिया पर छाये मंदी के बादल छंटने लगे, नतीजा यह हुआ कि मार्क्सवाद अनेक छोटे देशों का सरकारी धर्म बनते–बनते रह गया. उधर साम्यवादी देशों की हालत भी बहुत अच्छी न थी. उनीसवीं शताब्दी में ही साम्यवाद को अपना चुके देशों में राजनीतिक उथल–पुथल और आर्थिक मंदी के कारण हालात बिगड़ने लगे थे. इससे वहां की जनता का मार्क्सवाद से मोह–भंग होने लगा. यहां ‘मोह–भंग’ शब्द शायद अनुपयुक्त प्रयोग है. कुछ विद्वान मार्क्स की धर्म–संबंधी अवधारणा में भी विरोधाभास खोजते हैं. उनके अनुसार मार्क्स परंपरागत धर्म का प्रतिकार करता है, मगर अपनी विचारधारा मार्क्सवाद को धार्मिक आस्था की भांति आरोपित करता है. यह विरोधाभासी स्थिति है, जो मार्क्स के विचारों की वैज्ञानिकता पर सवाल खड़े करती है.
मार्क्स के आलोचकों में से एक कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर लेविस एस. फ्यूअर(1912—2002) का मानना है कि स्वयं मार्क्सवाद में धर्म की अनेक विशेषताएं सुरक्षित हैं. फ्यूअर के अनुसार मार्क्सवाद के समर्थक उसको बड़े ही सुनियोजित तरीके से आस्था और विश्वास के रूप में जनमानस में रोपने का प्रयास करते हैं, न कि ऐसे सत्य के रूप में जिसको प्रयोगों के आधार पर जांचा–परखा गया हो. फ्यूअर के अनुसार मार्क्सवाद और ईसाइयत में सिर्फ इतना अंतर है कि मार्क्सवाद इसी जीवन को सुखमय बनाने का दावा करता है, जबकि ईसाई धर्म मृत्यु के बाद सुख–प्राप्ति का विश्वास दिलाता है. तर्क की कसौटी पर दोनों ही कच्चे हैं. वस्तुतः मार्क्स ने अपने जीवनकाल में ही बुद्धिजीवियों का आवाह्न किया था कि वे मार्क्सवाद के प्रचार में अपना अधिकाधिक योगदान दें. रूस, चीन, कोरिया आदि देशों में मार्क्सवाद से प्रेरित होकर अनेक विद्वान लेखक, साहित्यकार उसकी ओर आकर्षित भी हुए थे. क्रांति के बीच और उसके बाद जिस प्रकार का प्रचार साहित्य बांटा, उसने मार्क्सवाद को एक धार्मिक सत्ता की तरह ही स्थापित करने का प्रयास किया था. अंतर सिर्फ इतना है कि ईसाइयत परमात्मा और पैगंबरवाद में भरोसा करती है. डार्विन के विकासवाद से प्रेरित मार्क्स इस प्रकार की किसी अलौकिक शक्ति की उपस्थिति को सरासर नकारता है. इसके बावजूद फ्यूअर ने मार्क्सवाद की उपयोगिता को स्वीकारा था.
कार्ल पोपर ने भी मार्क्स के विचारों पर अवैज्ञानिक होने का आरोप लगाया है. उसके अनुसार मार्क्स के विचार प्रभावी और दिल को भले ही लगें, मगर वे तार्किकता से परे हैं. पोपर ने मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की भी आलोचना की है. उसके अनुसार मार्क्स का विकासवादी चिंतन कुछ पूर्वनिर्धारित मान्यताओं से प्रभावित है. पूंजीवाद की आलोचना करते समय मार्क्स अत्यधिक आक्रामक हो जाता है, जिससे निष्पक्ष विवेचना की संभावना घट जाती है. जैसा कि पहले भी संकेत किया गया है, मार्क्स और ऐंगल्स का विचार था कि मार्क्सवाद की सफलता यूरोप के विकसित देशों में ही संभव है. जिस समय व्लादिमिर लेनिन ने सोवियत रूस की राजनीति में कदम रखा, वह आर्थिकरूप से बेहद पिछड़ा देश था. लेनिन के राजनीतिक सहयोगी ट्रोटस्की ने ‘स्थायी क्रांति’ की अभिकल्पना प्रस्तुत की थी, जिसमें उसने कहा था कि रूस जैसी कृषि–आधारित व्यवस्था और विस्तृत भू–भाग वाले देश में भी मार्क्सवादी क्रांति संभव है. बाद में सोवियत संघ की स्थापना से उसने अपने विचारों की प्रामाणिकता सिद्ध भी कर दी थी.
कुछ विद्वानों ने मार्क्स के ऐतिहासिक द्वंद्ववाद के विचार को भी कठघरे में खड़े करते हुए आरोप लगाया था कि वह तर्क से सिद्ध करने के बजाय, केवल स्थापनाएं देता है, जो विमर्श के दौरान कहीं टिक ही नहीं पातीं. निष्कर्ष तक पहंुचने की हड़बड़ी उसकी पूरी मेहनत पर पानी फेर देती है. केवल दक्षिणपंथी विचारक ही मार्क्स से असंतुष्ट हों, ऐसा नहीं है. कतिपय वामपंथियों ने भी उसके विचारों के प्रति अपनी असहमति दर्ज की है. इनमें से एक उसका समकालीन हेनरी जाॅर्ज था, जिसका मानना था कि मार्क्स के विचारों को शायद ही कभी परखा गया है. हेनरी जाॅर्ज ने मार्क्स के विचारों पर कृत्रिमता का आरोप लगाया था. मार्क्स के विचारों से उसका समकालीन रूसी अराजकतावादी मिखाइन बेकुनिन भी असहमत था. बेकुनिन और मार्क्स में व्यक्तिगत स्तर पर तो मतभेद भी ही. ये मतभेद ‘प्रथम इंटरनेशनल’ के दौरान खुलकर सामने आए थे. मार्क्स का मानना था कि बेकुनिन इंटरनेशनल का उपयोग निजी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए करना चाहता है, जबकि बेकुनिन ने मार्क्स पर फ्रांसिसी राजनीति का यहूदीकरण करने के आरोप लगाए थे. दोनों में परस्पर सैद्धांतिक मतभेद भी थे. बेकुनिन की मान्यता थी कि भविष्य के संगठनों का निर्माण पूर्णत नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिए. उसने परिकल्पना की थी कि श्रमिक पहले स्वैच्छिक मजदूर संघों में संगठित होंगे. उन मजदूर संघों के स्वतंत्र श्रमिक–बस्तियां(कम्यून) होंगी. तदनंतर वे क्षेत्र, प्रांत, राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक संगठित शक्ति का रूप ले लेंगे और इस तरह संपूर्ण समाजवाद का आगमन होगा. मार्क्स के कथन ‘एक अच्छे दिन काम करने के एवज में आकर्षक, न्यायोचित वृत्तिका’ के समानांतर उसका कहना था—‘वृत्तिका प्रणाली का उन्मूलन.’ स्पष्ट है कि श्रमिकसंघवादी बेकुनिन श्रमिक संघों को राजनीतिक–आर्थिक शक्तियों से लैस करना चाहता था. उसका मानना था कि—जब दुनिया–भर के उद्योगों का संचालन श्रमिकों द्वारा अपने भले के लिए किया जाएगा, उस समय भीषण बेरोजगारी, युद्ध, सामाजिक अंतद्र्वंद्व यहां तक कि बड़े अपराध और गंभीर सामाजिक समस्याओं के बने रहने का कोई आधार ही नहीं रहेगा.
मार्क्स के चिंतन की व्यापकता से इनकार नहीं किया जा सकता, मगर यह भी सत्य है कि मार्क्स के बाद से करीब सवा सौ वर्ष के अंतराल में समाज में व्यापक परिवर्तन आया है. इनमें से एक बदलाव प्रेस की स्वतंत्रता और उसकी शक्ति से भी जुड़ा है. हाल के दशकों में मीडिया जितना ताकतवर होकर उभरा है, इसके बारे में मार्क्स और ऐंगल्स ने शायद कल्पना भी न की थी. मीडिया और शिक्षा की मिली–जुली ताकत ने उपभोक्ता को भी अपने हितों के प्रति जागरूक किया है. उत्पाद से जुड़ी सूचनाएं अब केवल उत्पादक की संपत्ति नहीं है. बल्कि व्यापक लोकहित में उसको उन्हें सार्वजनिक भी करना पड़ सकता है. बाजारोन्मुखी व्यवस्था में संबंधों में परिवर्तन अवश्य हुआ है. अपने दैनिक जीवन में उपभोक्ता और उत्पादकों का सम्मिलन न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक संबंधों को भी प्रभावित करता है, जिसके आधार पर हमारे जीवन का स्वरूप तय होता है. हालांकि अब भी उपभोक्ता और उत्पादक के संबंधों में उत्पादक का हाथ ऊपर होता है. वही तय करता है कि उपभोक्ता के साथ मेल–मुलाकात के समय कहां तक समझौता किया जाए. बावजूद इसके यह भी सच है कि
स्पष्टरूप से मार्क्सवाद की अभिकल्पना यह सोचकर की गई थी कि मानवीय व्यवस्था के रूप में यह एक दिन पूंजीवाद को अपदस्थ कर उसका स्थान ले लेगा. दरअसल यह ‘स्थान ले लेना’ ही मार्क्सवाद की दुर्बलता है. इससे कई बार यह संकेत भी मिलता है मार्क्सवाद केवल सत्ताओं के विकल्प की बात करता है. वास्तविक परिवर्तन उसका लक्ष्य है ही नहीं. मार्क्स और ऐंगल्स निःसंदेह विलक्षण प्रतिभाशाली थे, जिन्होंने सर्वहारा वर्ग का आवाह्न किया था कि अपने हितों की पहचान करे. संगठित होकर विरोध की रूपरेखा तैयार करे. पूंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष में सफलता के लिए प्रतिबद्ध साहित्य के अध्ययन की ओर प्रवृत्त हो और पूरी तैयारी के साथ पूंजीवाद की जड़ों पर प्रहार करें. मगर कब तक? लेखकद्वय संभवतः यह सोच भी नहीं पाए थे कि मार्क्सवादी विचारधारा से लैस मजदूर, पूंजीवाद को उखाड़ फैंकने के बजाय उसके समर्थन में भी जा सकता है. ऐसा इतिहास में होता भी रहा है. मजदूर संगठनों की असफलता के पीछे इस तरह के ढेरों उदाहरण आसानी से खोजे जा सकते हैं.
अंत में एक प्रश्न. हालांकि यह सिर्फ आकलन करने की कोशिश है. प्रश्न यह है कि मार्क्स और ऐंगल्स यदि अपने विचारों के साथ दुबारा जन्म ले लें तो उनकी और उनके विचारों की प्रासंगिकता होगी? यानी क्या समाज को आज भी मार्क्स और ऐंगल्स की जरूरत है. यह बात गांधी अथवा किसी और महापुरुष को लेकर भी उठाया जाता सकता है. इसमें तो कोई दो राय नहीं कि मार्क्स और ऐंगल्स का दर्शन आज की स्थितियों में बहुत प्रामाणिक लगता है. तो भी मार्क्स और ऐंगल्स के दर्शन की वापसी की स्थिति में उसके हम आंशिक रूप में ही उसके साथ होंगे. शायद इसलिए कि लगभग डेढ़–दो शताब्दी के अंतराल पूंजीवाद ने हमारे सोच और व्यवहार दोनों को ही आमूल बदला है. यह बदलाव इतना व्यापक और सूक्ष्म है कि पूंजीवाद के धुर विरोधी विचारक भी अपने व्यवहार से उसका समर्थन करते हुए देखे जा सकते हैं.
मेरे विचार में ‘कम्युनिस्ट’ मेनीफेस्टो जैसे विचारों की आज कोई प्रासंगिकता नहीं है. हां मार्क्स की पूंजी का बहुत–सा हिस्सा आज भी प्रासंगिक है; और बना रहेगा. कहा जा सकता है कि हमें युवा मार्क्स नहीं, अनुभवी मार्क्स की आवश्यकता है. हमें आवश्यकता है मार्क्स और ऐंगल्स की विलक्षण मेधाओं की. पुनर्जन्म अप्रामाण्य है, फिर भी यदि मार्क्स घूमते–फिरते हमारे युग में लौट आएं तो हमारा आग्रह यह भी हो सकता है कि वह पूंजी का आधुनिक संदर्भयुक्त ग्रंथ दुबारा से लिखे. हम यह भी चाहेंगे कि उसमें पूंजीवाद की समालोचना हो, सिर्फ आलोचना नहीं. मार्क्स से यदि मुलाकात हो तो हम चाहेंगे कि वह धर्म की आलोचना को सस्ते में ही न निपटा दे. बल्कि उसपर तथ्यों के साथ विचार करे. यह भी विचारे कि क्या धार्मिक प्रभावों का कोई अनुकूल लाभ उठाया जा सकता है. हालांकि यह एक मुश्किल पाठ होगा. तो भी मार्क्सवाद की प्रासंगिकता को अगली शताब्दी तक ले जाने के लिए यह छोटा–सा मूल्य होगा. यदि यह काम ईमानदारी से किया जाए तो उसके फल भी दूरगामी महत्त्व के होंगे. और अंत में मार्क्स के बारे में महान क्यूबाई क्रांतिकारी चे’ ग्वेरा के विचार जानना उसके विचारों की समकालीनता को दर्शाने के लिए पर्याप्त होगा
और अंत में सिर्फ इतना कि हम मार्क्स के समाज को बदलने के नारे से असहमत हो सकते हैं, उसके क्रांतिकारी विचारों से अपनी असहमति दर्शा सकते हैं, उन्हें हिंसक बताकर उनसे नफरत कर सकते हैं. यही नहीं उसके पूंजीवाद विरोध को हम एकतरफा, वैचारिक दुराग्रह का प्रतीक भी मान सकते हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि पचास साल में पूंजीवाद के खात्मे की मार्क्स की भविष्यवाणी झूठ सिद्ध हो चुकी है, इसलिए उसके पूंजीवाद–विरोध में कोई दम नहीं है. लेकिन उसके दृष्टिकोण से, सर्वहारा वर्ग के कल्याण की उसकी सदेच्छा तथा उसके प्रति समर्पण हेतु किए गए सतत संघर्ष के लिए, उन कष्टों के लिए जो अपने विचारों पर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ते हुए मार्क्स और उसके परिवार को उठाने पड़े थे, हमें उसका सम्मान करना ही पड़ेगा. इसलिए यदि दुनिया–भर में करोड़ों मजदूर, उसके नाम का एक साथ नारा लगाते हैं, जी–जान से उसको चाहते हैं, उसको अपना सच्चा हितैषी, गुरु और पथप्रदर्शक मानते हैं, तो हमें यह मानना ही पड़ेगा कि वह सच्चा मनुष्यता का सच्चा हितैषी, महान विचारक, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और अपने समय का महान चिंतक था. मानवीय सभ्यता के उन महानतम चिंतकों में से एक जो शताब्दियों के अंतराल में कभी–कभी ही जन्मते हैं. इसलिए मार्क्स की मेधा, उसके संघर्ष, सोच, दूरदृष्टि, मानवप्रेम, उसकी जीवनसंगिनी जेनी और मित्र एंगल्स को हमारा नमन! शत–सहस्र नमन!
No comments:
Post a Comment